नकल करने से पहले दो बारा सोचे

वर्षों पुरानी बात है। सुशीला नगरी में मुंजालमुनि नाम के ऋषिमुनि निवास करते थे। एक कुटीर के पास उन्होंने गुरुकुल की स्थापना की थी।

गुरुकुल में एक विशाल वटवृक्ष था। उस वटवृक्ष के नीचे बैठकर मुंजालमुनि रोज़ अपने शिष्यों को उपदेश देते थे। एक दिन एक बिल्ली मुनि के पैर के पास आकर बैठ गई। मुनि ने उस बिल्ली को थोड़ा दूध पिलाया। तब से रोज़ बिल्ली को मुनि के पास आने की आदत पड गई। मुनि को भी बिल्ली का साथ अच्छा लगने लगा और उन्होंने उस बिल्ली को पाल लिया। वे साधना करते या उपदेश देते, बिल्ली हमेशा मुनि के आसपास ही रहती।

कुछ सालों बाद मुनि की मृत्यु हो गई। शिष्यों को उलझन हुई, “बिल्ली का क्या करें?” शिष्यो को भी बिल्ली की हाज़िरी की आदत पड गई थी। इसलिए सब ने तय किया कि बिल्ली भी गुरुकुल में ही रहेगी। इस तरह सालों बीत गए। सभी शिष्य, पट शिष्य के मार्गदर्शन में अपनी प्रगति कर रहे थे।

एक दिन पास के गाँव से आनंदमुनि और उनके शिष्य, सुशीला नगरी में आए। मुंजालमुनि के शिष्यों की कुशलता और ज्ञान की प्रगति देखकर आनंदमुनि बहुत प्रभावित हुए। गुरुकुल में मुनि ने उस बिल्ली को घूमते-फिरते देखा। यह बिल्ली मुंजालमुनि के समय से है। यह जानकर उनके मन में विचार आया, “इन लोगों की कुशलता और ज्ञान की प्रगति का रहस्य, यह बिल्ली ही होनी चाहिए। अगर मुझे भी उनकी तरह कुशल होना हो, तो ऐसी ही एक बिल्ली मुझे भी पालनी चाहिए।”

इस तरह आनंदमुनि भी अपने गुरुकुल के लिए एक बिल्ली ले आए। धीरे-धीरे यह बात दूसरे गाँवों में भी फैलने लगी। “ध्यान और साधना में बिल्ली की आवश्यकता के विषय पर चर्चा होने लगीं। सभी एक दूसरे की नकल करके बिल्ली रखने लगे।

इस तरह एक पीढ़ी निकल गई। बिल्ली की आवश्यकता का मुख्य कारण तो मुंजालमुनि के आश्रम वाले भी भूल गए। वहाँ भी एक बिल्ली की मृत्यु होने पर दूसरी बिल्ली लाइ जाती थी।

थोड़े समय के बाद ऐसा हुआ कि उस आश्रम के प्रमुख विवेकमुनि को बिल्ली के बालों से एलर्जी हो गई। इसलिए उन्होंनें बिल्ली को निकाल देने का आदेश दिया। सभी शिष्यों ने बहुत विरोध किया। मुनि विद्वान थे। उन्होंने शिष्यों को समझाया, “इस बात में कोई तथ्य नहीं है कि, बिल्ली के कारण एकाग्रता बढ़ती है या बिल्ली से साधना में मदद मिलती है। यह तो कुछ बिना अक्ल वाले लोगों ने एक-दूसरे की नकल की, और ऐसी मान्यता लोगों के मन में दृढ कर दी।”

विवेकमुनि अनुभवी और विद्वान थे। इसलिए उनकी बात शिष्यों को समझ में आई। शिष्यों ने बिल्ली को आश्रम से निकाल दिया।

धीरे-धीरे यह बात आसपास के गाँवों में फैल गई। बिल्ली की देख-रेख से परेशान लोग फिर एक-दूसरे की नकल करके बिल्ली को अपने आश्रम और गुरुकुल से निकालने लगे। और सभी गाँवों में ‘बिल्ली की गैरहाज़िरी में होने वाले ध्यान का महत्व की चर्चा होने लगीं।

यह बात विवेकमुनि ने सुनी। यह सुनकर वे मुस्कुराए। उस शाम को शिष्यों को उपदेश देते हुए उन्होंने कहा, “अपनी कम अक्ल के कारण ही हम दूसरों की नकल करते हैं। नकल के कारण ही हम अपने जीवन में ऐसी कितनी ही ‘बिल्लियाँ पालते होंगे। अगर बिल्ली ही प्रगति करवाती हो, तो नियम-संयम की कोई ज़रूरत ही नहीं रही न! लेकिन…”

अभी वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था, कि वहाँ एक बिल्ली कूदकर विवेकमुनि के पैर के पास आकर बैठ गई,, “म्याऊं…..” करके धीमी आवाज़ की और सभी शिष्य हँस पड़ें।