चंद्रा रौद्र नाम के एक आचार्य मुनि थे। वे स्वभाव से बहुत क्रोधी थे। उनका एक शिष्य था। वह बहुत विनयी और आज्ञांकित था। एक दिन विहार करते-करते रात हो गई। गाँव तक नहीं पहुँच पाने की वजह से शिष्य ने गुरु को कंधे पर उठाकर विहार करना जारी रखा। रात के अँधेरे में काँटों से भरे हुए गड्ढेंवाले रास्ते पर विहार करना बहुत कठिन था। अँधेरे में नहीं देख पाने की वजह से शिष्य का पैर बार-बार गड्ढे में तो कभी ऊंचाई पर पड़ जाता था। इसलिए मुनि को झटका लग रहा था। झटका सहन नहीं कर पाने से मुनि का गुस्सा भड़क उठता था और वे शिष्य को धमकाते थे। शिष्य का पैर घाव और खून से भर गया था। उतने में शिष्य को ज़ोर से ठोकर लगी, इसलिए गुरु ने अपना संतुलन खो दिया और उसके सिर पर उनकी मोटी लकड़ी से जोरदार फटका मारा।
शिष्य अत्यंत कठिन और दयाजनक परिस्थति में आ गया था। उसने सोचा, "अरे! यह मेरा कैसा दुर्भाग्य है कि मैं अपने गुरु को सँभाल नही पा रहा हूँ। मेरी वजह से उन्हें कितनी तकलीफ और मुसीबतों से गुज़रना पड़ रहा है!" और उसे केवलज्ञान प्रकट हुआ। अँधेरा होने के बावजूद भी अब उसे रास्ता ठीक से दिखाई देने लगा। वह बिल्कुल भी ठोकर खाए बिना, गुरु को ज़रा भी आँच ना आए उस तरह से चलने लगा। यह देखकर गुरु को आश्चर्य हुआ। उन्होंने शिष्य से पूछा, "पहले तू ठीक तरह से नहीं चल सकता था और अब तू आसानी से और स्थिरता से चल रहा है। इसका क्या कारण है? इतने अँधेरे में भी तू किस तरह से रास्ता ढूँढ सकता है?" शिष्य ने कहा, "गुरुदेव, यह आपकी ही कृपा का फल है।" गुरु को लगा, मार की वजह से शिष्य सीधा हो गया लगता है। इसलिए अब ठीक से चल रहा है। इतने में तो शिष्य बहुत विनम्रता से बोला, "गुरुदेव, आपकी कृपा से मुझे केवलज्ञान प्रकट हुआ है। उसके आधार से मैं सबकुछ देख सकता हूँ।"
जैसे ही गुरु ने यह सुना कि वे तुरंत ही शिष्य के कंधे से कूदकर नीचे उतर गए। केवलज्ञानी शिष्य को उन्होंने नमस्कार किया और खुद के बुरे बर्ताव के बदले उसकी माफ़ी माँगी। बहुत पश्चाताप होने की वजह से गुरु को भी उसी क्षण केवलज्ञान हुआ।
देखा मित्रों? हृदयपूर्वक से किए हुए प्रायश्चित का परिणाम कितना ऊँचा आता है?