इर्शालू वेगवती

भारत के मृणालकुंड नगर में श्रीभूति नाम का एक पुरोहित रहता था। उसे सरस्वती नाम की पत्नी और वेगवती नाम की पुत्री थी। इस कुटुंब को लोग बहुत आदर देते थे।

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एक बार उस नगर में तपस्वी, ज्ञानी और बैरागी मुनिराज पधारे। लोग उनके दर्शन-वंदन करने जाने लगे। मुनिराज की महिमा दिनोदिन बढ़ने लगी। इंसान की दयनीय स्थिति है कि कभी कभार उसे दूसरों की ईर्षा और जलन परेशान करती है। व्यक्ति को सिर्फ खुद को कुछ ना मिलने का दुःख नहीं है, लेकिन दूसरों को अच्छा मिलने का भी दुःख है। इस दुःख से कौन निकाल सकेगा ? मुनि की प्रशंसा-प्रतिष्ठा सुनकर बेचारी वेगवती जलने लगी और आखिर में उससे रहा नहीं गया और लोगों को कहने लगी : "यह महाराज तो ढोंगी है। ब्राह्मण जैसे पात्र को छोड़कर आप सभी ऐसे घूमनेवाले साधू की पूजा करने दौड रहे हो, लेकिन आपको उसके चरित्र के बारे में कुछ पता नहीं है।"

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लोगों को किसी की बुराई सुनने में ज्यादा दिलचस्पी होती है। किसी की अच्छी बात से ज्यादा बुरी बात सुनने में लोगों को ज्यादा दिलचस्पी होती है। यहाँ वेगवती बोल ही रही थी, तो बोलने में क्या बाकी रखेगी ? उसने तो साधू के लिए ऐसा-वैसा बोलना शुरू कर दिया। पूरे नगर में साधू पुरुष की हलकी बातें वायुवेग से फैल गई और कई लोगों ने उसे सच भी मान लिया। कई लोगों ने महाराज के पास जाना बंद कर दिया। यह जानकर मुनि को बहुत दुःख हुआ। "मेरे कारण शासन की शान को धक्का लगे यह मैं कैसे बर्दाश्त कर सकता हूँ ?" उन्होंने नियम लिया कि "जब तक मेरे पर से यह कलंक नहीं उतरता, तब तक मैं आहार-पानी का त्याग करता हूँ।" और वे ध्यान करने बैठ गए। वास्तव में तो मुनि पवित्र थे इसलिए शासनदेवी (धर्मरक्षक देवी) उनकी सहायता करने आई। वेगवती बुरी तरह से बीमार पड़ गई। वह पीड़ा से तड़पने लगी। कईं उपचार किए पर सभी असफल रहे। उसकी पीड़ा बढती ही जा रही थी। उसे विचार आया कि "मैंने मुनि पर जो कलंक लगाया है यह उसी का परिणाम है।" उसे अपने किए पर बहुत पश्चाताप हुआ। उसने नगरजनों के बीच मुनि की माफ़ी माँगी और अपनी भूल का स्वीकार किया और कहा, "आप अग्नि की तरह पावन हैं, ईर्षा की वजह से मैंने ही आप पर कलंक लगाया है। आप तो दया के सागर हैं। मुझे क्षमा कर दीजिये। आज के बाद फीर कभी भी मैं ऐसी गलती नहीं करूँगी।" इस तरह खूब हृदयपूर्वक पश्चाताप करने के बाद देवी ने उसे पीड़ामुक्त किया। बीमारी से स्वस्थ होने के बाद उसने उपदेश सुना और दीक्षा लेकर संयम के मार्ग पर चल पड़ी। इस ओर मुनि का भी जय जयकार हुआ। वेगवती आयुष्य पूरा करके स्वर्ग में गई।

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वहाँ का आयुष्य पूरा करके वह एक राजा के वहाँ राजकुमारी के रूप में जन्मी। पूर्वभव में मुनि पर जूठा आरोप लगाने के अपराध के कारण उसे इस भव में कलंकित होकर वनवास तथा अकेलेपन के दुःख भोगने पड़े।
देखा दोस्तों, किसी के बारे में गलत बोलने में कितना जोखिम है। उसमें भी किसी साधू-संत के बारे में तो कभी भी गलत नहीं बोलना चाहिए ओर सुनना भी नहीं चाहिए और जब भी गलती का एहसास हो तब पश्चाताप करें। दिल से किया हुआ पश्चाताप तमाम गुनाहों को धो देता है।

इसलिए हररोज भावना करें कि, 'हे दादा भगवान ! मुझे, किसी भी देहधारी उपदेशक साधू, साध्वी या आचार्य का अवर्णवाद, अपराध, अविनय न करने की परम शक्ति दीजिए।'