क्षितिप्रतिष्ठा नाम का एक नगर था। उसके राजा का नाम पृथ्वीपाल था। एकबार राजा शिकार करने के लिए निकलें। उन्होंने मोर का शिकार करने के लिए तीर चलाया। तीर लगते ही पेड़ पर बैठा हुआ मोर चिल्लाते हुए ज़मीन पर गीर पड़ा। तीर शरीर में घुस गया लेकिन उसके प्राण अभी निकले नहीं थे। तीर के घाव से मोर ज़िंदगी और मौत के बीच तड़प रहा था। मोर की मृत्यु की असह्य वेदना देखकर राजा को बहुत दुःख हुआ, अरेरे! यह मैंने कितना बुरा काम कर दिया! मैंने एक निर्दोष जीव को तीर से घायल कर दिया। इसी तरह अगर कोई मुझ से भी बलवान इंसान या पशु मुझे घायल कर दे या फाड़ दे तो मेरी हालत भी इस मोर के जैसी ही हो जाएगी न।
राजा मोर के पास गए। धीरे से तीर खींच लिया और खून बंद करने का प्रयत्न किया। मोर को सहलाते हुए उसकी क्षमा माँगने लगे। राजा की देखभाल और प्रेम से मोर को थोड़ी शांति हुई और शुभ ध्यान करने लगा। और थोड़ी ही देर में उसकी मृत्यु हो गई। शुभ ध्यान में मृत्यु होने की वजह से विशालपुर नाम के नगर में उसने मनुष्य के रूप में जन्म लिया।
एक दिन राजा ने एक मुनिराज को शिला पर बैठे हुए देखा। राजा उनके पास गए। मुनि ने उन्हें उपदेश दिया कि, 'जीवदया धर्म की माता ही है' यह सुनकर राजा ने तुरंत ही श्रावक धर्म अंगीकार किया। महल में वापस आकर पृथ्वीपाल राजा ने जाल, धनुषबाण जैसे जीवहिंसा के तमाम साधन जला डालें। श्रावकधर्म का पालन करते हुए उनकी मृत्यु हो गई, और विशालपुर नाम के नगर में ही सुनंद नाम के बड़े प्रसिद्ध और धनी व्यापारी हुए।
इस तरफ मोर का जीव भी विशालपुर नगर में ही मनुष्यरूप में अवतरित हुआ था, जो राजा का सेवक था। एक दिन सेवक ने सुनंद व्यापारी को देखा। पूर्वभव के संस्कार से सुनंद को देखते ही सेवक के मन में उसकी हत्या करने का विचार आया और उसी दिन से सेवक सुनंद की हत्या करने के मौके की राह देखने लगा।
कुछ दिन बाद सेवक ने रानी का रत्नजड़ित हार चुरा लिया और जहाँ सुनंद ध्यान में बैठा था वहाँ जाकर चुराया हुआ हार सावधानी से सुनंद के गले में पहना दिया। इस तरफ रानी को रत्नजड़ित हार गुम होने का पता चला। राजा ने तुरंत ही सेवकों को हर घर में तलाशी लेने के लिए भेजा। सैनिकों को लेकर सेवक सुनंद के पास आया। सुनंद तो ध्यान में डूबा हुआ था। गले में रत्नजड़ित हार पहना हुआ था। राजसेवक उसे बाँधकर राजा के पास ले गए।
राजा ने सुनंद को हार के बारे में पूछा। सुनंद ने कोई जवाब नहीं दिया। राजा ने गुस्से में आकर सुनंद का वध करने का हुक्म दिया। दूसरे दिन राजा की आज्ञा से सेवक जैसे ही सुनंद का वध करने के लिए तलवार उठाता है कि तलवार के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। यह देखकर सब अचंभित हो गए। दूसरे सेवकों ने भी अपने-अपने हथियार से उसे मारने के प्रयास किए, लेकिन सभी शस्त्रों के टुकड़ें हो गए। आखिर में यह हकीकत राजा को बताई। यह सुनकर तुरंत ही राजा वहाँ पधारे और सुनंद को छोड़ने की आज्ञा दी। मुक्ति मिलते ही सुनंद अपने घर गया और अपने काम खत्म करके राजा के पास आया। और विनय से बोला, 'राजन, मैं श्रावक हूँ। हम कभी भी चोरी नहीं करते। ऐसे तो कई रत्नजड़ित हार मेरे भंडार में हैं।' राजा सुनंद के साथ गए। उसका धनभंडार देखकर राजा अचंभित हो गए। रानी के रत्नजड़ित हार से भी कीमती हार उसके भंडार में थे। आखिर में सुनंद ने राजा से कहा, 'राजन, कल मेरे पर्व का दिन था। उस दिन मैं किसी भी आभूषण के बारे में बात नहीं कर सकता। इसलिए आपने जब हार के बारे में पूछा, तब मैंने आपको कोई जवाब नहीं दिया।' यह सुनकर राजा को सुनंद के लिए मान हुआ।
कुछ वक्त बीतने के बाद सुनंद ने अपना कारोबार अपने पुत्र को सौंप दिया और उसने दीक्षा ले ली। वक्त रहते उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। विहार करते-करते वे विशालपुर नगरी में पधारे। वह सेवक उन्हें देखकर फिर से दुष्ट विचार करने लगा। यह देखकर सुनंद केवली ने उस सेवक को उपदेश दिया, 'पिछले जन्म में तुम एक मोर थे। मेरे छोड़े हुए तीर से तुम्हारी मृत्यु हो गई थी। अब तुम्हें मनुष्य जन्म मिला है, तो तुम ऐसे दुष्ट कृत्य छोड़ दो। ऐसे काम तुझे संसार में ही भटकाएँगे।'
यह सुनकर सेवक को जातिस्मरण ज्ञान (पिछले जन्मों को देख सके ऐसा ज्ञान) हुआ। उसने सहजता से रत्नजड़ित हार की चोरी की बात सब को बताई। सब के बीच अपनी गलती कबूल की और माफ़ी माँगी। उसके बाद उसने दीक्षा ली।
इस तरह मोर के जीव ने अपनी गलती का पछतावा किया और सुनंद के साथ के बैर से छूट गया और कल्याण के मार्ग में आगे बढ़ा।
देखा दोस्तों, दिल से किए हुए पछतावे से चाहे कैसे भी बैर से छूट सकते हैं।