यह बात राजा भरत की है। भगवान ऋषभदेव के सौ पुत्र थे। उनमें से राजा भरत सब से बड़े पुत्र थे। भरत, चक्रवर्ती राजा कहलाते थे। चक्रवर्ती राजा यानी जिनके वैभव-विलास की कोई सीमा ही नहीं होती। संसार के सभी प्रकार के सुख उन्हें प्राप्त होते हैं। उनकी अश्वशाला में अनेक प्रकार के चतुर और तेज़ घोड़े थे और ग़जशाला में कई ताकतवर हाथी थे। उन्हें कोई दुश्मन हरा नहीं सकता था। उनका रूप, कांति और सौंदर्य मनोहर थे। उनके अंगों में महान बल और शक्ति छलकते थे।
जिनके वैभव-विलास, शक्ति, सैन्यदल और नगर की कोई तुलना ही नहीं की जा सकती थी ऐसे राज-राजेश्वर भरत एक दिन अपने महल के शीशभवन में मनोहर सिंहासन पर वस्त्रों और आभूषणों से सुशोभित होकर बैठे हुए थे।शीश भवन यानी अपना ड्रेसींग रूम, जहाँ हम तैयार होते हैं। अपने ड्रेसिंग रूम में तो एक ही आईना होता है, जबकि यह तो चक्रवर्ती राजा भरत का ड्रेसिंग रूम यानी पूरा भवन आईने से ही भरा हुआ था। जहाँ देखें वहाँ खुद का ही प्रतिबिंब दिखाई देता है। अब शीश भवन में बैठकर राजा खुद को आईने में देख रहे थे। उसी समय उनकी दृष्टि अपने बाँए हाथ की उँगली पर पड़ी।अरे! उँगली ऐसी साधारण सी क्यों दिख रही है? देखते ही ख्याल आया कि उस उँगली की अंगूठी गिर गई है। वे सोच ने लगे कि 'अंगूठी के आधार पर उँगली की शोभा है या उँगली के आधार पर अंगूठी की शोभा है?' ऐसे सोचते-सोचते उन्होंने धीरे-धीरे बाकी की सभी उँगलिओं में से अंगूठी उतार दीं।
फिर देखा तो बिना अंगूठी की उँगलियाँ बिल्कुल अच्छी नहीं लग रहीं थीं। यह देखकर भरत राजा सोचने लगे, 'अरे! यह कैसी विचित्रता है! ये अंगूठी सोने की धातु को पीटकर बनाई गई है और उससे मेरी उँगलियाँ सुंदर दिख रही थी। अंगूठी निकलने पर उँगली की सुंदरता कम हो गई। इन उँगलियों से हाथ की शोभा है और इस हाथ से शरीर की शोभा है। अब मैं इस में शोभा किसकी समझूँ? मेरे शरीर की या अंगूठियों की?' उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ और फिर वे लगातार सोचते ही रहे| "जिस शरीर को मैं अपना मानता हूँ उस शरीर की सुंदरता सिर्फ इन वस्त्र और आभूषणों की वजह से ही है। मेरे शरीर की तो कोई संदरता ही नहीं है? बात तो सही है। सुंदरता आए भी तो कहाँ से? यह शरीर तो सिर्फ खून, पीब, हड्डी और मांस का बना हुआ है। उसे मैं अपना मानता हूँ। कैसी भूल! कैसी विचित्रता! जहाँ पर यह शरीर ही मेरा नहीं है, वहाँ ये राज-वैभव कैसे मेरे हो सकते हैं? चक्रवर्तीपना भी मेरा नहीं हो सकता। और इस शरीर की भी एक दिन मृत्यु हो जानेवाली है, तो फिर इसमें मेरापन क्या रखना! अरे! मैं तो भूल ही गया! जिस शरीर से मैं ये सब राज-वैभव भोग रहा हूँ, वो चीज़ ही मेरी नहीं हो पाएगी! इससे बड़ा दुःख और क्या हो सकता है?"
ऐसे सोचते-सोचते भरत राजा का सब मोह चला गया और वैराग्य आ गया। उनका अज्ञानरूपी आवरण टूट गया और शीश भवन में ही उन्हें केवलज्ञान प्रकट हुआ।
देखा दोस्तों,
शरीर पर मोह करने लायक नहीं है। उसे सुंदर बनाने में समय बिगाड़ने की जरूरत नहीं है। वह कभी भी अपना नहीं हो सकता। ज्ञानीपुरुष मिले हैं, तो उनके पास से आत्मा प्राप्त करके इस शरीर से ही मोक्ष का काम निकाल लेना चाहिए।