आप सब राजा रावण को तो जानते ही है। लेकिन आज हम आपको उनके बारे में एक सुंदर बात बताने जा रहे हैं जिसे आप सब नहीं जानते होंगे। एक दिन राजा रावण अपनी पत्नी मन्दोदरी के साथ पुष्पक विमान में बैठकर अष्टापद तीर्थ पर गए। वह तीर्थ पर राजा भरत ने एक सुंदर जिनालय बनवाया था। वहाँ राजा रावण ने अपने समुदाय के साथ भगवान शिव की पूजा की। उनके मन में बहुत भक्ति भाव जागृत हुआ। उन्होंने विणा मंगवाई। हाथ में विणा लेकर वे भाव से भक्ति करने बैठे।
उतने में नागपति धरनेन्द्र वहाँ आकार चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार करके रावण के पास बैठे। रावण ने उनसे अष्टापद तीर्थ का महत्व पूछा। नागपति ने उन्हें अष्टापद तीर्थ का महत्व बताया। यह सुनकर रावण के मन में भक्ति भाव और बढ़ गया। वे बड़े हर्षोल्लास के साथ भक्ति करने लगे। वे विणा बजाते हुए भक्ति में लीन होने लगे। जैसे कि भगवान में तल्लीन हो गए हों।
कुछ देर के बाद अचानक विणा का एक तार टूट गया। विणा बजना बंद हो गई और उनकी आँखे खुल गई। तब ‘अहो ! इस भक्ति भाव का भंग ना हो।’ ऐसा सोचकर तुरंत ही रावण ने जैसे तार टुटा ही नहीं है वैसे अपने हाथ को चीरकर एक नस निकालकर विणा में लगा दी और फिर से भक्ति में लीन हो गए। उनकी तीर्थंकरों के प्रति भक्ति इतनी उच्च दशा पर पहुँची कि उनका ‘तीर्थंकर नाम कर्म’ बँध गया। यह देखकर देवों ने भी पुष्पवृष्टि करके उनकी प्रसंशा की। ‘तीर्थंकर नाम कर्म’ मतलब भविष्य में वे तीर्थंकर होंगे।
देखा मित्रों, भाव बिगड़ने से अधोगति होती है वैसे ही उच्च भाव होने से उर्ध्वगति होती है। राजा रावण आने वाली चौबिसी में तीर्थंकर होंगे। इसलिए दशहरे के दिन उनके पुतले नहीं जलाने चाहिए या उसे देखकर खुश भी नहीं होना चाहिए।
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