श्रेणिक राजा और अनाथी मुनि

एक दिन मगध देश के राजा श्रेणिक घुड़सवारी करते हुए जंगल में पहुँच जाते  हैं. वहाँ जंगल में वो एक सुंदर और तेजस्वी युवा मुनि को ध्यान में बैठे हुए देखते  हैं. उनका नाम था अनाथी मुनि. उनका रूप देखकर राजा बहुत आनंदित होते  हैं. राजा बहुत विनयपूर्वक मुनि से पूछते  हैं, "आपको ऐसा क्या दुःख आन पड़ा है जो आप भरी जवानी में सब त्यागकर बैठे है ? संसार के भोग का आनंद लेने वापस संसार में आ जाइये." मुनि ने कहा, "राजन, इस संसार में मैं अनाथ हूँ. इसलिए बैराग धारण करके मैंने संसार का त्याग किया है. मुझे संसार में वापस नहीं आना है."

यह सुनकर राजा ने कहा , "ओह ! इतनी ही बात है ! मुनि, मैं आपका नाथ बनने के लिए तैयार हूँ. आपका सारा भार मैं अपने सिर पर रखूँगा. अब तो संसार में वापस आ जाइये.'

अनाथी मुनि ने श्रेणिक से कहा, "अरे श्रेणिक ! मगध देश के राजा. आप खुद ही अनाथ है तो आप मेरे नाथ कैसे बनेंगे ?" मुनि के वचन से आश्चर्यचकित होकर राजा बोले कि "मेरे पास तो सर्व साधन संपत्ति है, अपार धनवैभव है, पत्नी-पुत्रादि से भी मैं सुखी हूँ, सभी प्रकार के भोग मुझे प्राप्त है, विशाल सैन्य से मैं सज्ज हूँ, कितने राज्य मेरे आधीन है, सभी मेरी आज्ञा मानते है, दुनिया की कोई भी ऐसी चीज नहीं है जो मेरे पास ना हो ? सबकुछ होने के बावजूद मैं अनाथ कैसे हो सकता हूँ ?""  

मुनि ने कहा, "हे राजन ! आप मेरी बात ठीक से समझे नहीं है. आपको मैं अपनी बात बताता हूँ ताकी आपकी शंका का समाधान हो सके." ऐसा कहकर मुनि राजा को अपनी बताते हैं.

"कौशांबी नाम की सुंदर नगरी का मैं रहनेवाला था. मेरे पिताजी का नाम धनसंचय था. वो बहुत धनवान थे. एक दिन मेरी आँखों में असह्य वेदना और पुरे शरीर में जलन होने लगी. इस वेदना से मैं बहुत दुखी था. अनेक प्रकार की दवाइयाँ  और अन्य उपचार भी दर्द मिटा नहीं सके. मेरे माता-पिता, भाई-बहन ने मेरी वेदना टालने के लिए बहुत प्रयास किये. परंतु कोई मेरा दुःख मिटा नहीं सका, वेदना ले नहीं सका. हे राजा श्रेणिक, यही मेरा अनाथपन था. हर तरह की साधन संपत्ति, रिश्तेदार मेरे पास होने के बावजूद भी किसीके प्रेम, किसीके औषध या किसीके भी परिश्रम से मेरा रोग मिटा नहीं. मैं इस संसार से बहुत दुखी हो गया था. एक रात को मुझे बैराग उत्पन्न हुआ और मैंने निश्चय किया कि अगर मेरा ये रोग मिट जायेगा तो मैं दीक्षा ले लूँगा. वो रात बित गई. मेरी वेदना भी मिट गई. मैं निरोगी हो गया. माता-पिता, स्वजन, भाई-बंधू सभी से पूछकर मैंने दीक्षा ली. जब से मैंने भगवान की शरण में जाने का निश्चय किया तब से मैं अनाथ में से सनाथ हुआ."

राजा बड़ी जिज्ञासा से मुनि की आपबीती सुन रहे थे. मुनि ने राजा से पूछा, "राजन, अब बताईये, आपकी सारी धन संपत्ति, धन वैभव, पत्नी-पुत्रादि स्वजन, विशाल सैन्य इसमें से कोई भी आपकी वेदना का दुःख ले सकता है ?"

राजा ने मना करते हुए दो हाथ जोड़कर कहा, "मुनिवर, आप धन्य है. भरी जवानी में आप आत्मकल्याण के पंथ पर चल पड़े हैं. मैंने आपसे संसार में वापस आने की तुच्छ बात की इसके लिए मैं आपसे क्षमा मांगता हूँ. मुझे माफ़ कर दीजिए."

ऐसा कहकर श्रेणिक राजा मुनि से प्राप्त हुए बोध को ग्रहण करके धन्यभाव से महल में वापस आते हैं.

दोस्तो, हमारे पास चाहे जितनी भी संपत्ति, अभ्यास, विद्या या रूप हो पर जब तक भगवान की शरण प्राप्त नहीं होती तब तक हम अनाथ ही है. ज्ञानीपुरुष हमें आत्मा की प्राप्ति करवाते हैं और भगवान के साथ हमारी डोर जोड़ देते हैं. जब हम उनके आश्रित होते है तब सनाथ होते हैं. 

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