एक बार पार्श्वनाथ भगवान विहार करते-करते एक तपस्वी के आश्रम में पहुँचे। सूर्यास्त का समय होने के कारण वे आश्रम के पास एक घने बरगद के पेड़ के नीचे कायोत्सर्ग मुद्रा (खड़े होकर तप) में खड़े थे।
मेघमाली नामक एक देव था, जिसका भगवान के साथ पूर्वभव का वैर था। उसने अपने अवधि ज्ञान में भगवान को बरगद के पेड़ के नीचे कायोत्सर्ग मुद्रा में तपस्या करते हुए देखा। उसके मन में भगवान के प्रति द्वेष भाव उत्पन्न हुआ। भगवान के पास जाकर उसने हाथी, सिंह, आदि छोटे-बड़े रूप धारण करके उन्हें भयंकर कष्ट पहुँचाएँ, परन्तु भगवान विचलित नहीं हुए।जब उसे किसी तरह भी अपने प्रयासों में सफलता नहीं मिली तो मेघमाली ने गर्जना के साथ मूसलाधार वर्षा करना शुरू कर दिया। उसने इतनी जोरदार वर्षा की कि पशु-पक्षी भयभीत होकर अकाल मृत्यु को प्राप्त होने लगे, फिर भी भगवान विचलित नहीं हुए l अंत में भगवान के कानों तक पानी पहुँच गया और फिर उनकी नाक की नोक तक पहुँच गया, फिर भी भगवान अडिग रहे l

उसी समय धरणेन्द्र देव शीघ्रता से वहाँ आए जहाँ भगवान ध्यान में लीन होकर खड़े थे, उन्होंने भगवान के चरणों में प्रणाम किया और उनके चरणों के नीचे एक स्वर्ण कमल बनाकर उन्हें ऊपर उठा लिया और उनके सिर पर सात फन वाले छत्र की रचना कीl
भगवान तो ध्यान में लीन थे l उन्हें ना तो उपकार करने वाले धरणेन्द्र देव पर राग हुआ और ना ही कष्ट पहुँचाने वाले मेघमाली के प्रति द्वेष हुआ, उन्हें दोनों के प्रति संपूर्ण समभाव था l
भगवान की ऐसी वीतरागता के कारण उसी भव में उनके वैर के कर्म पूरे हुए और उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ।