सत्य बोलना भी एक प्रमाणिकता ही है। जिनका जीवन ही एक संदेश था, ऐसे बापू के जीवन से सभी परिचित है, बालमित्रो,आज हम बापू के ही शब्दों मे,उनके द्वारा लिखी गई उनकी आत्मकथा "सत्य के प्रयोग" पुस्तक से यह बात जानेंगे।
"मेरे चाचाजी को बीड़ी पीने की आदत थी। उन्हे धुआं निकालते हुए देखकर मुझे और मेरे एक भाई को भी बीड़ी फूंकने की ईच्छा हुई। पैसे तो हमारे पास नहीं होते थे, इसलिए चाचाजी बीड़ी के जो ठूंठे फेंक देते थे,उन ठूंठों की चोरी करना हमने शुरू किया।"
लेकिन कई बार ठूंठे नही मिलते थे और उनमें से बहुत धुआं भी नहीं निकलता। इसलिए नौकर की गाँठ मे से दो-चार पैसे की चोरी करके बीड़ी खरीदते। लेकीन उन्हे रखें कहां ? यह सवाल आया। यह मालूम था कि बड़ों के सामने तो बीड़ी नहीं पी सकते। जैसे-तैसे करके थोड़े हफ्ते चलाया। उसी समय मैंने सुना कि एक तरह का पेड़(उसका नाम तो भूल गया हूँ) होता है, जिसकी डाली बीड़ी की तरह ही जलती है ओर उसे पी सकते है । हम उसे लेकर पीने लगे।
लेकीन हमे संतोष नहीं हुआ। हमारी पराधीनता हमें खलने लगी। अंतः हम दोनों ने झूठी बीड़ी चुराकर पीना, साथ ही नौकर के पैसे चुराकर उसमें से बीड़ी लेकर फूँकने की आदत छोड़ दी।
बीड़ी पीने से तो बीड़ीयों के ठूंठा चुराना और उसके लिए नौकर के पैसे चुराने के दोष को मै अधिक गंभीर समझता हूँ। उसके अतिरिक्त मुझसे दूसरा भी एक चोरी का दोष हुआ। जब बीड़ी पीने का दोष हुआ,तब मेरी उम्र बारह-तेरह साल की होगी,शायद उससे भी कम।
और इस चोरी के समय उम्र पंद्रह साल की होगी। यह चोरी मेरे भाई के सोने के कड़े के टुकड़े की थी। उन्होंने छोटा-सा,मतलब करीब पच्चीस रूपए का कर्ज लिया था। उसे कैसे चुकाएं, उसके बारे मे हम दोनो भाई सोच रहे थे। मेरे भाई के हाथ में सोने का कड़ा था। उसमें से एक तोला सोना काटना मुश्किल नहीं था। कड़ा काटकर, उतना सोना बेचा और कर्ज पूरा किया।
लेकिन मेरे लिए, यह बात असह्य हो गई। अब मैंने चोरी नही करने का निश्चय किया। पिताजी के सामने कबूल भी कर लेना चाहिए, ऐसा लगा। जीभ तो नहीं उठी। पिताजी मुझे मारेंगे, ऐसा डर नहीं था। लेकिन वह दुखी होगें, शायद माथा कूटेंगे तो ? ऐसा विचार आया। लेकीन यह खतरा उठाकर भी दोष तो कबूल करना ही चाहिए, उसके बिना शुद्धि नहीं होगी, ऐसा लगा।
अंत मे मैंने चिट्ठी लिखकर दोष कबूल करने और माफी मांगने का निश्चय किया। मैंने चिट्ठी लिखकर पिताजी के हाथों में दी। चिट्ठी मे सारा दोष कबूल किया और सजा मांगी। वह खुद दुखी नहीं हो, ऐसी विनंती की और भविष्य में कभी ऐसा दोष नहीं करने की प्रतिज्ञा ली।
मैंने कांपते हुए हाथों से यह चिट्ठी पिताजी के हाथ में रखी। मैं उनके पलंग के सामने बैठा! । उस समय वह बिमार थे। उन्होंने चिट्ठी पढ़ी। आंखो से आंसू टपके। चिट्ठी भीग गई। उन्होंने थोड़ी देर आंख मींची और फिर चिट्ठी फाड़ दी। चिट्ठी पढने के लिए बेठे थे और फिर लेट गए।
मैं भी रोया पिताजी का दुःख समझ सकता था। उन आंसू के प्रेमबाण ने मुझे बेधा। उस प्रेम को तो, वही जान सकता है जिसने अनुभव किया हो।
मैंने ऐसा सोचा था कि पिताजी क्रोध करेंगे, कटु वचन सुनाएंगे, शायद सिर पीटेंगे! लेकिन उन्होंने कितनी शांति रखी। ऐसा मैं मानता हूं कि उसका कारण था दोष का निखालस इकरार। मेरे इकरार करने से पिताजी मेरी तरफ से निर्भय हो गए और मेरे प्रति उनका लगाव बहूत बढ़ गया ।
देखा बालमित्रो, गांधीजी ने अपने द्वारा हुई अप्रमाणिकता का कैसा पश्यताप किया, पिताजी के सामने अपना दोष कबूल किया और फिर कभी, वह दोष नही करने का निश्चय किया और अंत तक उन्होने उस निश्चय की पालन किया।
तो आओ, हम भी तय करें के आज से पहले अगर कभी भी हम अप्रमाणिक हुए हों तो उसका दिल से प्रतिक्रमण कर लेंगे अब, फिर कभी अप्रमाणिक नहीं होंगे, ऐसा स्ट्रोंग निश्चय करें और उसके लिए परम पूज्य दादा भगवान से खूब शक्तियॉं मांगे।
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