मगध देश के वाणिज्यग्राम नाम के नगर में आनंद श्रावक नाम का एक गृहस्थ रहता था। वह बहुत धनवान था। उसकी 4 करोड़ सोनामहोरें जमीन में गड़ी हुई थी, 4 करोड़ व्यापार में लगी हुई थीं और 4 करोड़ घर के सामान में लगी हुई थीं।इसके अलावा उसके यहाँ 40 हज़ार गायों के 4 गोकुल थे। वह बहुत बुद्धिमान और व्यवहारकुशल था। इसलिए हर कोई उसकी सलाह लेता था। उसकी शिवनंदा नाम की स्वरूपवान पत्नी थी। उसकी 70 वर्ष की उम्र हुई तब तक वह वीतराग धर्म के बारे में अंजान था। ऐसे में एक दिन भगवान महावीर उस गाँव में पधारे। हजारों लोग प्रभु की देशना सुनने जाते थे। वह भी प्रभु की देशना सुनने गया। प्रभु ने श्रावक (भगवान की आज्ञा के अनुसार वीतराग धर्म पालनेवाला और जीवन जीनेवाला) और साधु के बारे में काफी बातें की।
आनंद को जिज्ञासा हुई। उसने प्रभु के पास समझपूर्वक व्रत अंगीकार करके श्रावक धर्म का स्वीकार किया। उसने ये बात अपनी पत्नी को बताई और अपनी पत्नी को भी ऐसा करने के लिए कहा। उसकी पत्नी शिवानंदा ने भी प्रभु के पास जाकर श्रावक धर्म का स्वीकार किया। दोनों पति-पत्नी सुंदर तरीके से श्रावक धर्म का पालन करते हुए समय बीताने लगे।
काफी समय बीतने के बाद आनंद को उग्र तपश्चर्या करने के भाव हुए। उन्होंने सभी रिश्तेदारों को इकट्ठा किया, भोजन करवाया और उनकी उपस्थिति में गृहकार्य का सारा भार अपने बड़े बेटे को सौंप दिया और कठिन तप करने लगे। ऐसा करते हुए उन्हें अवधिज्ञान (जिस ज्ञान से वह कुछ दूर तक का देख सकते थे) हुआ। उसकी मदद से उन्होंने चारों दिशाओं में कुछ दूर तक देखा। इसके उपरांत ऊपर सौधर्म देवलोक (देवलोक का नाम) और नीचे रत्नप्रभा (नर्क का नाम) भी देखें। ये देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें प्रभु महावीर के दर्शन की बहुत इच्छा हुई।
सौभाग्य से प्रभु महावीर उसी गाँव में पधारे और फिर गौतम स्वामी गोचरी (आहार) लेने निकले। उन्होंने लोगों के मुँह से आनंद के अवधिज्ञान की बात सुनी। यह सुनकर गौतम स्वामी आनंद की पौषधशाला (तप करने की जगह) पर गए। गौतम स्वामी को आते हुए देखकर आनंद ने विधिपूर्वक वंदन किए और विवेक से पूछा, " महाराज! श्रावक को संसार में रहकर अवधिज्ञान हो सकता है?"
श्री गौतम स्वामी ने जवाब दिया, 'हाँ, हो सकता है।' आनंद ने कहा, "प्रभु! मुझे वह ज्ञान हुआ है।" यह सुनकर गौतम स्वामी संशय में पड़ गए। उन्होंने कहा, "आनंद! एक श्रावक को उतना नज़र नहीं आता। इसलिए आपने अभी जो जूठ बोला है इसके लिए आप पश्चाताप कीजिए।"
आनंद ने सोचा, 'ये मेरे गुरु हैं, इस बार उन्हें गलतफहमी हो रही है, लेकिन उनका ये कहना कि 'आपको गलतफहमी हो रही है' ऐसा कहना उचित नहीं है। गुरु हैं इसलिए शांति से कहना ही उचित होगा।' ऐसा सोचकर आनंद ने कहा, "महाराज! सत्य का प्रायश्चित करना होता है या असत्य का?" गौतम स्वामी ने कहा कि, "असत्य का।" आनंद ने कहा, "तो मुझे प्रायश्चित करने की ज़रुरत नहीं है।" यह सुनकर गौतम स्वामी चले गए। महावीर स्वामी के पास जाकर सारी हकीकत बताई। महावीर स्वामी ने कहा, "हे गौतम! आनंद का कथन सत्य है। आपकी भूल हो रही है। इसलिए आप आनंद के पास जाकर क्षमायाचना कीजिए।" यह सुनकर वे तुरंत ही आनंद श्रावक के पास गए और अपनी गलती की माफी माँगी।
देखा दोस्तों, गौतम स्वामी का प्रभु महावीर के प्रति परम विनय कितना उत्कृष्ट (सर्वोच्च) था। प्रभु के कहने पर ज़रा भी अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किए बिना तुरंत ही वे आनंद श्रावक के पास अपनी गलती मानने गए। और कितना लघुतम भाव कि गणधर पद पर (मुख्य शिष्य) होने के बावजूद भी ज़रा भी विलंब किए बिना या संकोच किए बिना तुरंत ही उन्होंने आनंद श्रावक से अपनी गलती की माफी माँगी। अपनी भूल के लिए वे कितने जाग्रत थे।
इस तरफ आनंद श्रावक का भी अपने गुरु के प्रति ग़ज़ब का विनय था कि अपनी सत्य बात को नकारने के बावजूद भी वे गुरु का विनय चूकते नहीं हैं।