सफेद परंतु फटेहाल वस्त्र पहनने वाले शिरडी के श्री साईं बाबा की प्रसिद्धि और लोकप्रियता उनके रूप से बिल्कुल अलग थी। उनका स्वरूप एक 'फकीर' जैसा था, लेकिन वास्तव में उनके पास करुणा और प्रेम का अथाह भंडार था। उनके नाम 'साईं' में, 'सा' का अर्थ है शाश्वत (जीवित) और 'ई' का अर्थ है ईश्वर (भगवान)।
27 सितंबर, 1838 की तूफानी रात को, पथरी नामक गाँव में उनका जन्म हुआ था। एक प्रचलित लोककथा के अनुसार, एक निःसंतान दंपति—फकीर रोशन शाह मियाँ और उनकी पत्नी—जंगल से गुजर रहे थे और वहाँ उन्हें एक अनाथ बालक (साईं बाबा) मिला, जिसे उन्होंने गोद ले लिया। उन्होंने उसका नाम बाबू रखा। जब वे चार वर्ष के हुए, तब उनके पिता रोशन शाह का देहांत हो गया और उनकी पत्नी, जिन्हें बालक से अत्यधिक स्नेह था, शोक में डूब गईं। उन्होंने बाबू को वेणुकुसा नामक एक विद्वान पंडित को सौंप दिया।
साईं बाबा, वेणुकुसा के सबसे प्रिय शिष्य बन गए। वे वेणुकुसा के आश्रम में बारह वर्षों तक रहे और बहुत कुछ सीखा। वेणुकुसा उन्हें एक उदार और पवित्र आत्मा मानते थे, इसलिए अपने निधन के समय उन्होंने अपनी दिव्य विद्या, शक्तियाँ और सिद्धियाँ उन्हें सौंप दीं। गुरुजी के निधन के बाद, साईं बाबा ने आश्रम छोड़ दिया और शिरडी आ गए।
जब वे पहली बार शिरडी के खंडोबा मंदिर में आए, तब मंदिर के पुजारी महलसापति ने उन्हें "आओ साईं" कहकर स्वागत किया। इसी तरह उन्हें 'साईं' नाम मिला। इसके बाद वे शिरडी में ही रहने लगे। पहले वे मंदिर में रहते थे, परंतु वहाँ वे कुरान की आयतें पढ़ते थे, जिससे कई हिंदुओं ने विरोध किया और उनसे मंदिर छोड़ने को कहा। महलसापति और अन्य अनुयायियों ने उन्हें शिरडी की एक मस्जिद में ले जाया। साईं बाबा ने उस मस्जिद का नाम "द्वारकामाई" रखा और अपना शेष जीवन वहीं व्यतीत किया।
साईं बाबा प्रतिदिन सुबह पाँच बजे उठ जाते थे। इसके बाद वे द्वारकामाई मस्जिद के पास चूल्हा जलाने बैठते थे। वे केवल भिक्षा में प्राप्त भोजन ही करते थे और प्रतिदिन पाँच घरों से भिक्षा माँगते थे। भोजन को वे तीन भागों में बाँटते थे: पहला स्वयं के लिए, दूसरा अपने अनुयायियों के लिए, और तीसरा पशु-पक्षियों के लिए। फिर वे चूल्हे के पास बैठते, अनुयायियों के प्रश्नों का समाधान करते, प्रवचन देते, जो संध्या की प्रार्थना के साथ समाप्त होता।
साईं बाबा की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे धर्म, जाति और संप्रदाय के भेदभाव से परे थे। कुछ लोग उन्हें हिंदू मानते थे तो कुछ मुसलमान। वे हिंदुओं के साथ हिंदू और मुसलमानों के साथ मुसलमान की तरह व्यवहार करते, जिससे उन्होंने अपार लोकप्रियता प्राप्त की। हालाँकि वे सामान्य स्थितियों में इससे उल्टा दृष्टिकोण अपनाते थे – वे चाहते थे कि हिंदू उन्हें फकीर और मुसलमान उन्हें ब्राह्मण के रूप में स्वीकार करें।
साईं बाबा ने जन समुदाय को यह संदेश दिया: श्रद्धा जिसका अर्थ है भगवान पर विश्वास रखना सबुरी मतलब धैर्य रखना, पवित्रता मतलब हृदय और मन की पवित्रता बनाए रखना, करुणाभाव मतलब सभी प्राणियों के प्रति दयाभाव रखना, समानता मतलब सभी धर्मों के लोगों के लिए भेदभाव रहित भावना रखना, आधीनता मतलब अनुयायी होकर गुरु के प्रति समर्पण बनाए रखना
जब कोई ज्ञानी पुरुष दादा श्री से पूछता, "जब हम दुखी या चिंतित हों तो क्या करें? किसकी आराधना करनी चाहिए?" तो दादा कहते, "शिरडी के श्री साईं बाबा की आराधना करनी चाहिए। वे लोगों के दुख-दर्द दूर करने का प्रयास करते रहते हैं।"
वे कितने महान संत हैं! आज भी वे संसार को सुख की भेंट दे रहे हैं। उनकी बस एक ही इच्छा है – लोगों को दुखों से मुक्ति मिले। क्या ही पवित्र और धर्मनिष्ठ संत हैं वे! एक फकीर, जो किसी भी अपेक्षा के बिना, सदैव दूसरों की सहायता के लिए तत्पर रहते हैं।
15 अक्टूबर, 1918, विजयादशमी के दिन साईं बाबा ने अपना अंतिम श्वास लिया। परंतु उनका नाम आज भी उनके अनुयायियों के हृदयों में अमिट है।
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