सूरदास एक जिज्ञासु विद्यार्थी थे। वे अध्यात्म के बारे में जानना चाहते थे। वे एक गुरु से मिले, जिन्होंने उनका शिष्य के तौर पर स्वीकार किया। गुरूजी ने देखा कि सूरदास बड़ी आसानी से गुस्सा हो जाता है और यह अवगुण उसे कुछ भी सिखने में बाधक बनता है। इसलिए उन्होंने तय किया कि कुछ भी करके पहले सूरदास का गुस्सा भगाना है।
गुरुजी ने सूरदास को एक महीने के लिए कोई भी काम करते वक्त भगवान का नाम जपने को कहा। और एक महीने के बाद उनसे मिलने के लिए कहा।
सूरदास ने गुरूजी के आदेश का पालन किया और एक महीने के बाद उनसे मिलने गए। रास्ते में वह एक गली में से गुज़र रहे थे। वहाँ एक झाडूवाला झाडू लगा रहा था। गलती से थोड़ा कचरा उनके कपड़ों पर गिरा।
सूरदास गुस्सा हो गए और उस झाडूवाले को बहुत डाँटा। वे वापस घर गए और कपड़े बदलकर फिर से अपने गुरूजी से मिलने गए।
लेकिन गुरूजी को अभी भी उनकी पात्रता नज़र नहीं आई इसलिए उन्होंने सूरदास को फिर से एक महीने के लिए कोई भी काम करते वक्त भगवान का नाम जपते रहने को कहा। सूरदास दुःखी होकर वापस आए।
उन्होंने दूसरा महीना भी गुरूजी के कहे अनुसार गुजारा। एक महीने के बाद बड़ी उत्सुकता से वे गुरूजी के आश्रम गए। लेकिन रास्ते में फिर से पहले जैसी घटना हुई। सूरदास बहुत ही गुस्सा हो गए और झाडूवाले को डाँट दिया। और फिर से वे नहाकर अपने गुरूजी के पास पहुँचे। लेकिन गुरुजी ने सूरदास को फिर से एक महीने तक भगवान का नाम जपने के लिए कहा।
तीसरा महीना पूरा होने के बाद जब सूरदास गुरूजी से मिलने जाते हैं, तब रास्ते में फिर से वही घटना घटती है। लेकिन इस बार सूरदास को ज़रा भी गुस्सा नहीं आया। उन्होंने शांति से झाडूवाले से कहा, "आपका बहुत बहुत आभार। आप मेरे गुरु है। आपने मेरे गुस्से पर विजय पाने में मेरी मदद की है।"
ऐसा केहकर वे अपने रास्ते चलने लगे। जैसे ही वे आश्रम के नज़दीक पहुँचे कि वहाँ उन्होंने अपने गुरुजी को द्वार पर उनका स्वागत करने के लिए खड़े हुए देखा।
गुरूजी ने सूरदास को आशीर्वाद देते हुए कहा, अब आप ज्ञान प्राप्त करने योग्य बन गए है। गुरूजी ने उनके साथ एक जैसा ही व्यवहार जो बार बार किया था उसका रहस्य अब उन्हें समझ में आया।
1) गुरु को अपने शिष्य में रहे गुण-अवगुण की परख होती है। और शिष्य को उसकी गलतियों में से किस तरह बाहर निकाला जाए उसके सभी तरीके भी उनके पास होते हैं।
2) गुरु आज्ञा का निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए।
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