किसी भक्त के यहाँ स्वामी सहजानंद पधारे। भक्तानी तो सचमुच में भक्तानी ही थी। उन्होंने स्वामी जी के लिए बड़े ही भाव और प्रेम से रसोई बनाई।
स्वामी जी को भोजन करवाने के बाद उस भोली स्त्री ने भावविभोर होकर कहा, “स्वामी जी! अब दूध ले आऊँ?” उनका भाव टूट न जाए इसलिए इच्छा न होते हुए भी स्वामी ने दूध लाने के लिए हाँ कह दिया।
भक्ति में पागल वह स्त्री दूध के बदले छाछ का बर्तन उठा लाई। और दूध पीते हुए स्वामी जी दो-तीन बार बोलते गए, “दूध तो इतना अच्छा बनाया है कि बस, पीते रहने का ही मन कर रहा है।”
उस स्त्री को यदि यह पता चल जाए कि, वह दूध के बदले छाछ देने की भूल कर बैठी है, तो उसे बहुत दुःख होगा। ऐसा न हो इसलिए स्वामी जी नाटक करते रहें और वह बहन भी खूब आनंदित रही।
स्वामी जी के जाने के बाद जब उसे अपनी भूल पता चली, तब उनसे माफी माँगने के लिए वह तुरंत ही उनके ठहरने के स्थान पर दौड़कर गई।
स्वामी जी ने प्रेम से कहा, “बहन, तुमने इतने प्रेम से हमें छाछ पिलाई कि सचमुच वह हमें दूध से भी अधिक मीठी लगी।”
सामने वाले के दिल को ज़रा भी ठेस न पहुँचे उसका कितना ध्यान!