त्रिपृष्ट वासुदेव

त्रिपृष्ट वासुदेव सुखपूर्वक राजवैभव भोग रहे थे। एक दिन कुछ गायक आए। उन्होंने विविध राग में मधुर गायन प्रस्तुत करके, त्रिपृष्ट वासुदेव का दिल जीत लिया। रात्रि के समय वे गायक अपने मधुर स्वर में गा रहे थे। त्रिपृष्ट वासुदेव ने अपने सेवक को आज्ञा दी कि ‘जब मुझे नींद आ जाए तब गायकों का गायन बंद करवाकर उन्हें विदा कर देना।’ थोड़ी ही देर में त्रिपृष्ट वासुदेव सो गए लेकिन सेवक संगीत सुनने में इतना मग्न हो गया था कि संगीत बंद कराना ही भूल गया। इस तरह गायन करते हुए बहुत रात हो गई। अचानक त्रिपृष्ट वासुदेव की निंद्रा टूटी। गायकों का गायन अभी भी शुरू ही था। यह देखकर उन्होंने सेवक से पूछा, ‘आपने इन गायकों को अभी तक विदा क्यों नहीं किया?’ सेवक ने कहा, ‘हे महाराज! इनके गायन में मैं मग्न हो गया था जिसके कारण आपका हुक्म भूल गया और इन्हें विदा नहीं कर सका।’ यह सुनते ही राजा क्रोधित हो गए। उन्होंने दूसरे सेवकों को आज्ञा दी, ‘गायन के शौकीन इस सेवक के कान में गरम-गरम सीसा उड़ेल दो। जिस कान ने मेरी आज्ञा सुनने के बदले गायन सुनने का अपराध किया है इस कान काही दोष है।’

 

राजा की आज्ञा के अनुसार सेवकों ने उस सेवक के कान में अतिशय गरम किया हुआ सीसा उड़ेल दिया। भयंकर वेदना के कारण सेवक की तुरंत मृत्यु हो गई। भयंकर वेदना देने वाले राजा के साथ उसने वैर बांध लिया। त्रिपृष्ट वासुदेव आयुष्य पूर्ण करने के बाद नर्क में गए।

इन्हीं त्रिपृष्ट वासुदेव के आत्मा ने कई जन्मों के बाद त्रिशलामाता के गर्भ से चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी के रूप में जन्म लिया और उस सेवक का जीव उसी काल में ग्वाला बना। एक दिन प्रभु महावीर ध्यानमग्न खड़े थे। ग्वाला वहाँ अपनी गायों को चराते हुए पहुँचा। वह भगवान से अपनी गायों का ध्यान रखने के लिए कहकर किसी काम से चला गया। भगवान तो ध्यानमग्न थे, जिसके कारण स्वाभाविक है कि वे गायों का ध्यान नहीं रख पाए। गायों का कोई ध्यान रखने वाला नहीं होने के कारण वे भटक गईं। थोड़ी देर के बाद ग्वाला वापस लौटा। उसे अपनी गायें दिखाई नहीं दीं। उसने प्रभु से पूछा, “अरे देवार्य ! मेरी गाएँ कहाँ हैं ?” भगवान तो ध्यान में स्थिर थे। कोई जवाब न मिलने पर ग्वाला क्रोधित हो गया। उसने कहा, “आप जवाब क्यों नहीं देते ? आप क्यों मेरी बात सुन नहीं रहे ? आपके कानों के छिद्र क्या बेकार हैं?” ऐसा कहने पर भी प्रभु ने कोई जवाब नहीं दिया। तब अति क्रोधित होकर उसने प्रभु के दोनों कानों में बरू (नुकीली, तीक्ष्ण ईख) ठोक दिया। उसे कोई निकाल न सके इसलिए उसने बाहर से दिखाई देने वाले भाग को काट दिया और चला गया।

इस तरह त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में सेवक के कान में गरम सीसा उड़ेलवाने के कर्म का फल भगवान को इस भव में कान में बरू ठोके जाने के रूप में भुगतना पड़ा।

 

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