श्री नेमिनाथ प्रभु

श्री नेमिनाथ प्रभु वर्तमान चौबीसमें बाईसवे तीर्थंकर थे।उनके पिता का नाम समुद्रविजय और माता का नाम शिवादेवी था। भगवान कृष्ण उनके चाचा के पुत्र थे।

जब नेमिनाथ प्रभु छोटे थे, एक बार वे टहलने गए, तो वे भगवान कृष्ण के युद्ध के मैदान में गए। खेलते समय उन्हें कई हथियार और अन्य उपकरण दिखाई देने लगे। ऐसा करते हुए उनके हाथ में एक शंख आ गया। जिज्ञासा से उसने उसे बजाया। शंख की आवाज सुनकर वासुदेव भगवान कृष्ण चकित रह गए। वह शंख वासुदेव ही बजा सकते हैं। वासुदेव से कम शक्तिशालीसे शंख की आवाज नहीं हो सकती।

भगवान कृष्ण ने नौकरों से पूछा कि मेरे जैसा कौन शंखनाद कर रहा है। जांच में पता चला कि यह आपका भाई नेमीकुमार था जो शंखनाद कर रहे हैं। श्री कृष्ण महाराजको हुआ कि उनमें इतनी ताकत छोटी सी उम्र में है। तो वह बड़ी उम्र में क्या नहीं करेगा?

कालांतर में नेमीकुमार शादी की उम्र में पहुँच गए। उनका विवाह द्वारिका में रहने वाले राजा उग्रसेन की कुमारी श्री राजेमती से नक्की हुआ। शादी का दिन आया। बाराती शामिल हुई। नेमीकुमार की बारातका अनुपम सौन्दर्य देखने देवो और मानवीओ भी शामिल हुए।

दूसरी ओर राजा उग्रसेन ने बाराती के स्वागत के लिए भव्य तैयारियां कीं। बारतीयोंके भोजन के लिए रसोईघर के एक तरफ हिरण, खरगोश और कई अन्य जानवरों को बंदी बनाया था।बंदी बने हुए  जानवर मौत के डर से चीख रहे थे। उसी समय नेमीकुमार की बारात रसोईघरके नजदीक पहुंची।जानवरों की चीखें सुन नेमीकुमार का दिल उछल पड़ा। उन्होंने पूछा कि जानवरों को क्यों बांधा गया है। जवाब में पता चला कि "इन जानवरों को रात के खाने के लिए इकट्ठा किया गया है। उन सभी को मार दिया जाएगा और उनका भोजन बारातीओ को दिया जाएगा।"

यह सुनकर नेमीकुमार को बहुत अफ़सोस हुआ, "अरे! ये सभी मासूम जानवर मेरे लिए मारे जाएंगे! तो इस शादी में क्या अच्छा है? मैं ऐसे हजारों निर्दोष जानवरों के मरनेका कारण नहीं बनना चाहता।"

यह सोचकर नेमीकुमार ने सारथी के पास रसोई का दरवाजा खुलवाया और सभी जानवरों और पक्षियों को रिहा कर दिया और रथ को वापस करने का आदेश दिया। घर के बुज़ुर्गों ने कई तरह से प्रभुको समझाया लेकिन प्रभुने शादी करने से इनकार कर दिया।

नेमीकुमार रथ के साथ वापस अपने निवास पर आए। साथ ही देवताओं ने अपने-अपने आचरण के अनुसार भगवान से गृहस्थाश्रम को छोड़कर विश्व कल्याण की दृष्टि से दीक्षा लेने का अनुरोध किया। भगवान ने वरसी दान दिया और हजार राजाओं के साथ दीक्षा ली।

इस तरफ राजेमती को भी वैराग्य जागा । उन्होंने भी नेमिनाथ प्रभु से दीक्षा ली और आत्म कल्याण के मार्ग की ओर मुड़ गए।

बहुत कठिन तपस्या के बाद नेमिनाथ प्रभु गिरनार पर्वत पर पहुंचे। वहाँ भगवानको केवलज्ञान हुआ। बहुत से भव्य जीवोको प्रभुका प्रतिबोध मिला । प्रभु ने अपना जीवनकाल पूरा करने के बाद गिरनार पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया।