लघुराज स्वामी और श्रीमद् राजचंद्र

श्री लल्लू जी मुनि(जो बाद में लघुराज स्वामी के रूप में जाने जाते थे) का जन्म 1854 में गुजरात के वटामण गाँव के एक धनाढ्य और आदरणीय परिवार में हुआ था। वे अपने जीवन में बहुत सुखी थे लेकिन अचानक पच्चीस साल की छोटी सी उम्र में निमोनिया नामक रोग की पकड़ में आ गए। उन्होंने तरह-तरह के इलाज करवाए लेकिन किसी भी तरह ठीक नहीं हुए। उन्होंने तय किया कि यदि वे ठीक हो जाएँगे तो संसार त्याग देंगे। आश्चर्य की बात है कि वे ठीक हो गए। और कुछ ही समय के बाद उनकी माता ने उन्हें दीक्षा(संसार त्याग करना) की अनुमति दे दी। उन्होंने वि.सं.1940 में खंभात में साधुश्री हरखचंद जी मुनि से दीक्षा ले ली।

    श्री लल्लू जी मुनि ने पाँच साल तक शास्त्रों का अध्ययन किया और अलग-अलग तरह के कठिन तप भी किए, लेकिन उन्हें जिसकी अपेक्षा थी वैसी आध्यात्मिक शांति प्राप्त नहीं हुई। पाँच साल के बाद उन्होंने श्री अंबालाल भाई से श्रीमद् के बारे में सुना और उनके “पत्र” पढ़ने का अवसर मिला। श्रीलल्लू जी मुनि को मन में एक आशा की किरण दिखाई दी और वे श्रीमद् से मिलने के लिए आतुर हो गए।

    अंत में वि.सं.1946 में दीवाली के पवित्र दिनों में श्रीमद् राजचंद्र खंभात के स्थानकवासी उपाश्रय में, जहाँ श्री लल्लू जी और अन्य साधु रहते थे वहाँ पधारे। अपने गुरु हरखचंदजी महाराज की अनुमति से श्रीलल्लू जी मुनि श्रीमद् से मिलने अकेले गए। पहली ही मुलाकात में, खुद श्रीमद् से चौदह साल बड़े होते हुए भी श्रीमद् को तीन बार 'शाष्टांग नमस्कार' किया। फिर उन्होंने केवलज्ञान की प्राप्ति और अखंड ब्रह्मचर्य पालन करने की इच्छा व्यक्त की। श्रीमद् कुछ समय के लिए मौन रहे। फिर उन्होंने लल्लू जी मुनि के दाये पैर को अपनी ओर खींचकर अंगूठे में विशेष चिन्ह् है या नहीं उसका अध्ययन किया। श्रीमद् को तुरंत ख्याल आ गया कि लल्लू जी मुनि को पिछले जन्म से ही आध्यात्मिकता में रुचि थी। घर वापस लौटते समय उन्होंने श्री अंबालाल से कहा कि श्री लल्लू जी मुनि एक गुणवान व्यक्ति हैं। श्रीमद् खंभात में अंबालाल भाई के यहाँ सात दिन रुके और लल्लू जी मुनि को निज स्वरूप का भान करवाया।

    उनके जाने के बाद लल्लू जी मुनि श्रीमद् के साथ पत्र-व्यवहार करने लगे और उनका अनन्य भक्तिभाव बढ़ने लगा। जब भी उन्हें श्रीमद् का पत्र मिलता तब वे उसकी भक्ति प्रद्क्षिणा करते(किसी पवित्र चीज़ के चारों ओर भक्ति से घूमना)। वे अपने आप को अत्यंत भाग्यशाली मानते और वे इन पत्रों को बहुत ही आनंद और उत्साह से पढ़ते। लल्लू जी मुनि की दृष्टि में श्रीमद् वास्तव में भगवान स्वरूप थे। पूरी ज़िंदगी वे उनकी भक्ति में डूब गए थे।

    जब से श्रीलल्लू जी मुनि ने एक साधु होते हुए भी; गृहस्थ ऐसे श्रीमद् को गुरु के रूप में स्वीकार किया; तब से उनका समुदाय और रुढ़िवादी उन्हें बहुत तकलीफें देने लगे। फिर भी श्री लल्लू जी मुनि ने उनको दिए गए सभी दुःखों को शांति से सहन किया और खुद के अपनाए हुए सत्य के मार्ग से ज़रा भी विचलित नहीं हुए। वास्तव में तो जैसे-जैसे ज़्यादा तकलीफें आती गयीं वैसे-वैसे उनकी श्रीमद् के प्रति भक्ति और बढ़ती गई। उनकी परम कृपालदेव के प्रति भक्ति अपार थी।

 

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