गौतम स्वामी की सिन्सियारिटी

गौतम स्वामी, महावीर प्रभु के प्रथम शिष्य थे। उन्हें प्रभु के प्रति बहुत राग था। प्रभु का विरह उनसे सहन नहीं होता था। अपने निर्वाण का समय नज़दीक आया जानकर,प्रभु महावीर ने गौतम स्वामी के लिए एक युक्ति की।

उन्होंने गौतम स्वामी को आज्ञा दी कि, पास के गाँव में जाकर एक श्रावक को धर्म उपदेश देकर आओ। भगवान की आज्ञा गौतम स्वामी के लिए ब्रह्म वाक्य जैसी थी, आज्ञा मिलते ही वे प्रसन्न चित्त से श्रावक के घर जाने के लिए निकल पड़े।

वे बस आधे रास्ते ही पहुँचे होंगे कि तभी भगवान महावीर के निर्वाण की आकाशवाणी हुई। यह सुनकर गौतम स्वामी को बहुत आघात लगा कि, सबकुछ जानते हुए भी प्रभु ने अंत समय मुझे उनसे दूर कर दिया! भगवान ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? क्यों? क्यों?....

गौतम स्वामी सोच में पड़ गए। और विचार श्रृंखला आगे बढ़ी तो उनकी द्रष्टि भगवान पर से हटकर खुद पर पड़ी। विचारों की श्रृंखला ने अपनी काया पलटी... "अरेरे! मेरी भूल हो गई! मैंने भगवान के लिए कैसा गलत सोचा! मुझे भगवान के लिए राग है लेकिन भगवान तो वीतराग हैं। भगवान को किसी के साथ राग-द्वेष नहीं होता। भगवान तो अत्यंत करुणावाले हैं, वीतराग हैं..."

और भगवान की वीतरागता उनकी द्रष्टि में आने लगी। आवरण खिसकने लगे। जैसे ही संपूर्ण वीतरागता द्रष्टि में आई कि वहीं पर उन्हें भी केवल ज्ञान प्रकट हो गया।

जहाँ तक गुरु पहुँचे होते हैं, वहाँ तक शिष्य को पहुँचा ही देते हैं!